बेटी के बिना अधूरी है ज़िंदगानी
फिर उसकी आँखों में क्यों बरसता है पानी,
चाहके भी कोई न समझ सके उसकी जुबानी
इतनी निराली है बेटियों की कहानी।
कभी बनती सीता कभी सावित्री
कभी बनके माँ सबको सहेजती ,
कभी रोती है आँखे छुपाके
पर खुलके जीती है ज़िंदगानी बनाके।
उसकी जिंदगी सिमट सी गयी है चार दीवारी मै
उन्हें भी उड़ना है खुले आसमानो में ,
तरक्की की सीढ़ी को वो है थामती
हर बुराई का कर सामना वो सबको सुधारती।
इनकी जिंदगी सिर्फ चंद पल की होती है ,
क्यों की बेटी सबके नसीब में कहाँ होती है।
-पूजा पांडेय
"दिल की बात"
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